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देवव्रत कांग्रेसी या भाजपाई, आप का भी विकल्प

रायपुर। देवव्रत के पार्टी से बाहर जाने के बाद नए समीकरण की चर्चा शुरू हो गई है। अमित शाह के मिशन 65 को इस कड़ी के रुप में देखा जा रहा है। ऐसी संभावना है कि देवव्रत भाजपा का दामन थाम सकते हैं। वहीं उनकी कांग्रेस में वापसी का विकल्प लॉक नहीं हुआ है। मध्यप्रदेश के कद्दावर नेताओं में गिने जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया से देवव्रत के पुराने संबंध है। वे उनके चुनाव में प्रचार करने भी छत्तीसगढ़ आ चुके हैं। वर्तमान में सिंधिया को राहुल के करीबियों में गिना जाता है ऐसे में पूरी संभावना बनती है कि देवव्रत कांग्रेस में ही रहे, क्योंकि अभी तक उनका इस्तीफा स्वीकार होने की कोई अधिकारिक सूचना नहीं आई है। देवव्रत ने भी पार्टी छोड़ते समय राज्य नेतृत्व पर उपेक्षा का आरोप लगाया था न कि केन्द्रीय नेतृत्व पर। ऐसी भी सूचना मिली है कि आप पार्टी ने भी देवव्रत से संपर्क किया है। हालांकि इसकी संभावना बहुत कम है कि वे आप में जाएंगे। भाजपा मिशन 65 के तहत देवव्रत को अपने पाले में शामिल कर सकती है। जोगी कांग्रेस को लेकर भी कयास है।
यहां पर यह भी महत्वपूर्ण है कि दिग्विजय सिंह और खैरागढ़ राजपरिवार में पारिवारिक संबंध है, जिससे भी यह संभावना बनती है कि अंतत: देवव्रत कांग्रेस में ही बने रह सकते हैं। सूत्रों की मानें तो ऊपरी स्तर पर देवव्रत को लेकर चर्चा हो रही है और उन्हें राज्य से हटाकर केन्द्र में संगठन में सक्रिय रुप से कार्य करने की जबावदारी सौंपी जा सकती है। हालांकि पूनिया ने राजधानी में पत्रकारों से चर्चा के दौरान किसी से कोई बातचीत न किए जाने के संकेत दे दिए है। इससे भी साफ हो जाता है कि जो कुछ भी होगा केन्द्र से ही होगा। देवव्रत का कहना है कि उनकी लगातार उपेक्षा हो रही थी, जिसकी वजह से उन्होंने पार्टी को गुडबॉय कहा है। सांसद और विधायक देवव्रत काफी समय से छत्तीसगढ़ की राजनीति से बाहर नजर आ रहे हैं। राज्य स्तर पर उन्हें तवज्जों नहीं मिल रहा है। यह चुनावी वर्ष है, इसलिए भी सभी नेता अपनी-अपनी जुगत में लगे हैं। इस बार देवव्रत सिंह को टिकट मिलेगी भी या नहीं इस पर संशय बना हुआ है, जिसके चलते उन्होंने समय से पहले ही एक्शन ले लिया है। जहां तक पार्टियों का सवाल है तो उनकी सोच यह है कि अब खैरागढ़ राजपरिवार का लोगों के बीच उतना वर्चस्व नहीं है। देवव्रत खुद सांसद और विधायक चुनाव हार चुके हैं। वहीं गीता देवी सिंह और शिवेन्द्र बहादुर भी चुनाव हार गए थे। जहां तक राजनांदगांव की बात की जाए तो वहां राजपरिवार से ज्यादा जातिगत वोट मायने रखते हैं, इसलिए भी पार्टियां राजपरिवार को लेकर ज्यादा उत्सुक नजर नहीं आ रही है।

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