होली में लकड़ी नहीं विकार जलाएं…यह सिर्फ पर्व नहीं हमारी संस्कृति भी…

रायपुर। दीपक टंडन ने कहा है कि होली केवल एक पर्व नहीं हैं, यहां करोड़ों भारतीयों की संस्कृति भी है। फागुन महीने की शुरूआत से ही होली की रंगीनियां मन मस्तिष्क पर सवार हो जाती है। एक ओर पतझड़ की शुरूआत तो दूसरी ओर पलाश के चटख रंगों से लहलहाता फूल। ये सब दृश्य होली के ही संदर्भ को रेखांकित करते हैं।
मदमस्त हवाओं से सराबोर, रंग-गुलाल और पिचकारी से युक्त क्या बच्चे, क्या युवा और क्या बुजुर्ग सभी इस पर्व का सम्मानपूर्वक आनंद उठाते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते है, जो इस पर्व की गरिमा को कलंकित करने से भी नहीं चूकते। फुहड़ता इस पर्व का प्रसंग नहीं है अपितु अज्ञानी लोगों ने इसे बदल डाला है।
होली की सार्थकता तो तभी है जब इस पर्व को सही मायनों में परम्परागत रुप से मनाएं। होलिका दहन के लकड़ी को जलाने की बजाय अपने मन के भीतर पनप रहे विकारों को भस्म कर दें। पर्यावरण की दृष्टि से लकड़ी का जलाना वर्तमान दौर में उचित नहीं।
सांकेतिक तौर पर कम से कम लकडिय़ों का इस्तेमाल करने समय की मांग है अन्यथा पूरे देश में एक ही दिन में कितने करोड़ टन लकडिय़ां जल जाएंगी, होलिका दहन के नाम पर इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है।
वहीं दूसरे रंग-गुलाल खेलकर तमाम वातावरण को रंगीन बनाने के बजाय सूखी होली या फिर प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाए तो उचित होगा। इससे जल का भी बचाव होगा। दुनिया में जल संकट की शुरूआत हो चुकी है अत: होली पर्व की पारम्परिकता को ध्यान में रखते हुए लकड़ी, रंग-गुलाल और पिचकारी (प्लास्टिक) का उपयोग करते सतर्क रहें।
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