नई दिल्ली। सियासत का रंग दिखाकर साल 2018 गुजर गया। कहीं कमल मुरझा गया तो कही हाथ मजबूत हो गया। राजनीति पार्टियों के भीतर की तकरार भी गूंज बनकर सुनाई पड़ी किसी ने कांग्रेस का साथ छोड़ा तो किसी ने परिवार की पार्टी से अलग हो कर नई पार्टी बना डाली। लेकिन राजनीतिक उथल-पुथल पर गहरा असर छोड़ा विधानसभा चुनाव ने जो चुनाव किसी को ‘चाणक्यÓ तो किसी इलाके को ‘कांग्रेस-मुक्त’ बनाने का काम कर रहे थे वो ही चुनाव साल के जाते-जाते 2019 के महाचुनाव का ट्रेलर भी दिखा गए।
बीजेपी का विजयी अश्वमेध रथ उसी के कब्जे वाले इलाके में रोक दिया गया। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की जीत हुई। बीजेपी अपनी सरकारें नहीं बचा सकी। बस यही वजह रही कि साल की सबसे बड़ी राजनीतिक खबर तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव बन गए। ज्ञात हो कि साल 2015 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से ही एक ट्रेंड चल पड़ा था। हर चुनाव का आकलन मोदी-लहर, मोदी मैजिक और साल 2019 के लोकसभा चुनाव से किया जाने लगा।
एक परंपरा सी चल पड़ी। अगर उपचुनाव में बीजेपी की हार हुई तो कभी बहस के शोर में तो कभी दावों के जोर में ये कहा जाने लगा कि मोदी-लहर कहीं नहीं है और जब चुनाव में बीजेपी को जीत मिली तो ईवीएम पर सवाल उठाए जाने लगे। विरोध और ‘एडजस्टमेंट’ की अजीब विडंबना साल भर देखी जाती रही। तीन राज्यों के चुनाव में मिली जीत को कांग्रेस साल 2019 के लोकसभा चुनाव में कमबैक की संभावना की तरह देख रही है। लेकिन सिर्फ छत्तीसगढ़ को छोड़कर दो राज्यों में कांग्रेस को सत्ताधारी बीजेपी से जो कड़ी टक्कर मिली है उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
मध्यप्रदेश में 15 साल तो राजस्थान में 5 साल के बीजेपी शासन के बावजूद राज्यों में सत्ता विरोधी लहर मानने में संदेह होता है। साल 2019 का चुनाव ‘मोदी बनाम ऑलÓ होगा जिसमें कांग्रेस समेत तमाम विरोधी दल शामिल हो सकते हैं। लेकिन ये कोई नया परिदृश्य नहीं होगा। साल 2014 में भी ऐसा हो चुका है और यही हुआ था। आज कांग्रेस राफेल डील के मुद्दे पर पीएम मोदी को निशाना बना रही है। इसी तरह साल 2014 में पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को पीएम बनने से रोकने के लिए साल 2002 के गुजरात दंगों से लेकर सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले समेत कई आरोपों से घेराबंदी की गई थी।
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