नई दिल्ली। आज़ाद हिंदुस्तान से पहले कश्मीर एक अलग रियासत हुआ करती थी। तब कश्मीर पर डोगरा राजपूत वंश के राजा हरि सिंह का शासन था। डोगरा राजवंश ने उस दौर में पूरी रियासत को एक करने के लिए पहले लद्दाख को जीता था। फिर 1840 में अंग्रेजों से कश्मीर छीना।
तब 40 लाख की आबादी वाली इस कश्मीर रियासत की सरहदें अफगानिस्तान, रूस और चीन से लगती थीं। इसीलिए इस रियासत की खास अहमियत थी। फिर 1947 में आजादी के बाद तब पाकिस्तान नया-नया बना था।
अब एक तरफ हिंदुस्तान था, दूसरी तरफ पाकिस्तान और बीच में ज़मीन का ये एक छोटा सा टुकड़ा.. कश्मीर। एक आजाद रियासत…और यहीं से शुरू होती है दास्तान-ए-कश्मीर।
70 साल पहले एक क़बायली हमला। जो खत्म हुआ एक साल दो महीने एक हफ्ता और तीन दिन बाद। जिसने बदल दी जन्नत की सूरत। जिसने जन्नत को जहन्नम बनने की बुनियाद रखी। जिसने पहली बार मुजाहिदीन को पैदा किया। जिसने कश्मीर की एक नई कहानी लिख डाली।
करीब 700 साल पहले जिस गुलिस्तां को शम्सुद्दीन शाह मीर ने सींचा था। उनके बाद तमाम नवाबों और राजाओं ने जिसको सजाया-संवारा। जिसकी आस्तानों और फिजाओं में चिनार और गुलदार की खुशबू तैरती थी। जिसे आगे चलकर जमीन की जन्नत का खिताब मिला।
उसी कश्मीर में आज से ठीक सत्तर साल पहले एक राजा की नादानी और एक हुकमरान की मनमानी ने फिजाओं में बारूद का ऐसा जहर घोला जिसकी गंध आज भी कश्मीर में महसूस की जा सकती है।
मेरा मुल्क.. तेरा मुल्क.. मेरी जमीन.. तेरी जमीन, मेरे लोग.. तेरे लोग। इस गैर इंसानी जिद ने पहले तो एक हंसते खिलखिलाते मुल्क के दो टुकड़े कर दिए। लाखों लोगों को मजहब के नाम पर मार डाला गया और फिर उस जन्नत को भी जहन्नुम बना दिया गया।
जिसके राजा ने बड़ी उम्मीदों के साथ अंग्रेजों से अपनी रियासत को हिंदू-मुस्लिम की सियासत से दूर रखने की गुजारिश की थी। मगर उनकी रियासत की सरहदों के नजदीक बैठे मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनाने वाले कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना कश्मीर की इस आजादी के लिए तैयार नहीं थे।
उनकी दलील थी कि जिस तरह गुजरात के जूनागढ़ में हिंदू अवाम की तादाद को देखते हुए उसे हिंदुस्तान में मिलाया गया उसी तरह कश्मीर में मुसलमानों की आबादी के हिसाब से उस पर सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान का हक है।
अपनी इसी जिद को मनवाने के लिए जिन्ना ने कश्मीर के महाराजा हरि सिंह पर दबाव बनाना शुरू कर दिया और कश्मीर को जाने वाली तमाम जरूरी चीजों की सप्लाई बंद कर दी।
पाकिस्तान कश्मीर को अपने साथ मिलने के लिए अब ताकत का इस्तेमाल करने लगा। महाराज हरि सिंह अकेले उनका मुकाबला नहीं कर पा रहे थे। अब साफ लगने लगा था कि उनके हाथ से कश्मीर तो जाएगा, साथ ही डोगरा रियासत की आन-बान भी खत्म हो जाएगी।
भारतीय सेना ने दुश्मनों को खदेड़ा
कश्मीर घाटी को पाकिस्तानी आतंकियों से बचाने के लिए महाराजा हरि सिंह ने आखिरकार भारत के साथ मिल जाने का फैसला किया। भारतीय सेना ने दुश्मनों को खदेड़ कर रख दिया। फिर इस जंग के आखिरी दिन एलओसी का जन्म हुआ।
महाराजा हरि सिंह के हिंदुस्तान के साथ जाने के फैसले के फौरन बाद भारतीय सेना ने कश्मीर में मोर्चा खोल दिया। रात के अंधेरे में विमान के जरिए भारत ने सेना और हथियारों को बिना एटीसी के डायरेक्शन के श्रीनगर में उतार दिया।
उस वक्त हमलावर कबायली श्रीनगर से महज एक मील की दूरी पर थे। भारतीय सेना ने सबसे पहले श्रीनगर के इर्द-गिर्द एक सुरक्षा घेरा बनाया। इसके बाद तो जंग की सूरत बदलते देर नहीं लगी।
भारतीय फौज ने लहराया जीत का परचम
जंगी सामान की कमजोर सप्लाई और नक्शों की कमी के बावजूद जांबाज भारतीय सैनिकों ने एक के बाद एक तमाम ठिकानों से पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेडऩा शुरू कर दिया। भारतीय सेना के बढ़ते कदमों की धमक ने तब तक कबायलियों के दिलों में दहशत पैदा कर दी थी। उनमें भगदड़ मच चुकी थी।
लिहाजा देखते ही देखते सेना ने बारामूला, उरी और उसके आसपास के इलाकों को वापस कबायलियों से अपने कब्जे में ले लिया। मोर्चा संभालते ही भारतीय सेना ने पाकिस्तान को अहसास करा दिया कि भारत सिर्फ आकार में ही नहीं बल्कि दिलेरी में भी पाकिस्तानी से बहुत बड़ा है। मोर्चा संभालने के अगले कुछ महीनों में ही दो तिहाई कश्मीर पर भारतीय सेना का कब्जा हो चुका था. भारतीय फौज जीत का परचम लहरा चुकी थी।
ऐसे अलग हुआ एलओसी और पीओके
इस जंग के बाद कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट में पहुंचा। जिसके बाद 5 जनवरी 1949 को सीजफायर का ऐलान कर दिया गया। तय हुआ कि सीजफायर के वक्त जो सेनाएं जिस हिस्से में थीं उसे ही युद्ध विराम रेखा माना जाए।
जिसे एलओसी कहते हैं। इस तरह कश्मीर का कुछ हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में चला गया जिसे आज पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) कहा जाता है। जिसमें गिलगित, मीरपुर, मुजफ्फराबाद, बाल्टिस्तान शामिल हैं।
1947 से शुरू हुई कश्मीर पर कब्जे की जंग
कश्मीर को जख्मी करने वाली इस वारदात को आज करीब 70 साल हो गए हैं। पाकिस्तान अभी भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। पूरे कश्मीर पर कब्जे के लिए शुरू हुई 1947 से ये जंग अब भी जारी है। 1949 में सीजफायर के ऐलान के बाद एलओसी की लकीर खिंच चुकी थी।
यहां तक कि उसके बाद पाकिस्तान से लगने वाली तमाम सरहदों पर जो सेनाएं तैनात की गईं वो आज तक कायम हैं। 1949 से लेकर 1965 तक कश्मीर को हथियाने के लिए पाकिस्तान कोई न कोई मक्कारी करता रहा।
भारतीय सेना ने पाकिस्तान के मंसूबों पर फेरा पानी
आजादी के बाद एक तरफ हिंदुस्तान तरक्की की नई ऊंचाइयां छू रहा था तो वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान ने अपनी सारी ताकत दुनियाभर से हथियारों को बटोरने में जुटा रखी थी।
भारत से करारी शिकस्त के बाद भी पाकिस्तान बाज नहीं आया और उसने कश्मीरी जेहादियों के भेस में अपनी सेना के जवानों को चोरी छिपे कारगिल की पहाडिय़ों पर घुसा दिया, लेकिन ऑपरेशन विजय चलाकर भारतीय जांबाजों ने दुश्मन के नापाक मंसूबों पर पानी फेर दिया।
हालांकि पहाडिय़ों की ऊंचाई की वजह से पाकिस्तानी आतंकियों का सामना करने में भारतीय फौज के सामने कई मुश्किलें आ रही थीं, लेकिन भारत ने तोपों की गरज ने दुश्मन के हौसले पस्त कर दिए। भारतीय फौज ने 26 जुलाई 1999 को कारगिल से पाकिस्तानी घुसपैठियों को मार भगाया था।
यह भी देखें :
Add Comment