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होली 2019: कितना बदल गया राग, रंग और रस का उत्सव

होली समाज की जड़ता और ठहराव को तोड़ने का त्योहार है. उदास मनुष्य को गतिमान करने के लिए राग और रंग जरूरी है, होली में दोनों हैं. यह सामूहिक उल्लास का त्योहार है. परंपरागत और समृद्ध समाज ही होली खेल और खिला सकता है. रूखे और बनावटी आभिजात्य को ओढ़नेवाले समाज का यह उत्सव नहीं है. सांस्कृतिक लिहाज से दरिद्र व्यक्ति होली नहीं खेल सकता. वह इस आनंद का भागी नहीं बन सकता. साल भर के बंधनों, कुंठा और भीतर जमी भावनाओं को खोलने का ‘सेफ्टी वॉल्व’ होली है.

होली प्रेम की वह रसधारा है, जिसमें समाज भीगता है. ऐसा उत्सव है, जो हमारे भीतर के कलुष को धोता है. होली में राग, रंग, हंसी, ठिठोली, लय, चुहल, आनंद और मस्ती है. इस त्योहार से सामाजिक विषमताएं टूटती हैं, वर्जनाओं से मुक्ति का अहसास होता है, जहां न कोई बड़ा है न छोटा, न स्त्री न पुरुष, न बैरी न शत्रु. इस पर्व में व्यक्ति और समाज राग और द्वेष भुलाकर एकाकार होते हैं. किसी एक देवता पर केंद्रित न होकर इस पर्व में सामूहिक रूप से समाज के भीतर देवत्व के गुणों की पहचान होती है. इसीलिए हमारे पुरखों ने होली जैसा त्योहार विकसित किया.

हमारे यहां पर्वों के महत्व को समझने का मतलब ऋतु परिवर्तन के महत्व को समझना है. बसंत के स्वभाव और प्रकृति के हिसाब से उसका असली त्योहार होली ही है. बसंत प्रकृति की होली है और होली समाज की. होली समाज की उदासी दूर करती है. होली पुराने साल की विदाई और नए साल के आने का भी उत्सव है. यह मलिनताओं के दहन का दिन है. अपनी झूठी शान, अहंकार और श्रेष्ठता बोध को समाज के सामने प्रवाहित करने का मौका है. तमस को जलाने का अनुष्ठान है. वैमनस्य को खाक करने का अवसर है.





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होली में हमें बनारस का अपना मुहल्ला याद आता है. महानगरों से बाहर निकले तो गांव, कस्बों और मुहल्ले में ही फाग का राग गहरा होता था. मेरे बचपन में मोहल्ले के साथी घर-घर जा गोइंठी (उपले) मांगते थे. जहां मांगने पर न मिलती तो उसके घर के बाहर गाली गाने का कार्यक्रम शुरू हो जाता. मोहल्ले में इक्का-दुक्का घर ऐसे जरूर होते थे, जिन्हें खूब गालियां पड़तीं. जिस मोहल्ले की होलिका की लपट जितनी ऊंची उठती, उतनी ही उसकी प्रतिष्ठा होती. फिर दूसरे रोज गहरी छनती.

होलिका की राख उड़ाई जाती. टोलियों में बंटे हम, सबके घर जाते, सिर्फ उन्हें ही छोड़ा जाता जिनके घर कोई गमी होती. मेरे पड़ोसी ज्यादातर यादव और मुसलमान थे, पर होली के होलियारे में संप्रदाय कभी आड़े नहीं आता था. सब साथ-साथ इस हुड़दंग में शामिल होते. अनवर भाई भी वैसे ही फाग खेलते जैसे पंडित गिरधर गोपाल. जाति, वर्ग और संप्रदाय का गर्व इस मौके पर खर्च हो जाता.



साहित्य और संगीत होली वर्णन से पटे पड़े हैं. हमारे उत्सवों-त्योहारों में होली ही एकमात्र ऐसा पर्व है, जिस पर साहित्य में सर्वाधिक लिखा गया है. पौराणिक आख्यान हो या आदिकाल से लेकर आधुनिक साहित्य, हर तरफ कृष्ण की ‘ब्रज होरी’ रघुवीरा की ‘अवध होरी’ और शिव की ‘मसान होली’ का जिक्र है. राग और रंग होली के दो प्रमुख अंग हैं. सात रंगों के अलावा, सात सुरों की झनकार इसके हुलास को बढ़ाती है. गीत, फाग, होरी, धमार, रसिया, कबीर, जोगिरा, ध्रुपद, छोटे-बड़े खयालवाली ठुमरी, होली को रसमय बनाती है. उधर नजीर से लेकर नए दौर के शायरों तक की शायरी में होली के रंग मिल जाते हैं. नजीर अकबराबादी होली से अभिभूत हैं.‘जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की… जब डफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की.’ तो नए दौर के शायर आलोक श्रीवास्तव ने होली के रंगों को जिंदगी के आईने से देखा है. ‘सब रंग यहीं खेले सीखे, सब रंग यहीं देखे जी के, खुशरंग तबीयत के आगे सब रंग जमाने के फीके.’

Mathura: People play Huranga at Dauji Temple, during Holi celebrations near Mathura on Saturday. PTI Photo (PTI3_3_2018_000115B)

वैदिक काल में इस पर्व को नवान्नेष्टि कहा गया, जिसमें अधपके अन्न का हवन कर प्रसाद बांटने का विधान है. मनु का जन्म भी इसी रोज हुआ था. अकबर और जोधाबाई और शाहजहां और नूरजहां के बीच भी होली खेलने का वृत्तांत मिलता है. यह सिलसिला अवध के नवाबों तक चला. वाजिद अली शाह टेसू के रंगों से भरी पिचकारी से होली खेला करते थे.

लोक में होली सामान्यतः देवर-भाभी का पर्व है, पर मथुरा के जाव इलाके में राधा-बलराम, यानी जेठ-बहू का हुरंगा भी होता है. पारंपरिक लिहाज से होली दो दिन की होती है. पहले रोज होलिका दहन और दूसरे दिन को धुरड्डी, धुरखेल, धूलिवंदन कहा जाता है. दूसरे रोज रंगने, गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है. देश के कई हिस्सों में पूरे हफ्ते होली मनाई जाती है. ब्रज के अलग-अलग इलाकों-बरसाने, नंदगांव, गोकुल, गोवर्धन, वृंदावन में भी होली का रंग अलग-अलग होता है. लेकिन हर कहीं आनंद, सांस्कृतिक संपन्नता और फसलों का स्वागत इसके मूल में है.

Mathura: People play with ‘gulal’ during Holi celebrations at a village in Nandgaon, near Mathura, in Uttar Pradesh on Sunday. PTI Photo by Ravi Choudhary (PTI2_25_2018_000188B)

बौद्ध साहित्य के मुताबिक एक दफा श्रावस्ती में होली का ऐसा हुड़दंग था कि गौतम बुद्ध सात रोज तक शहर में न जा बाहर ही बैठे रहे. परंपरागत होली टेसू के उबले पानी से होती थी. सुगंध से भरे लाल और पीले रंग बनते थे. अब इसकी जगह गोबर और कीचड़ ने ले ली है. हम कहां से चले थे, कहां पहुंच गए? सिर चकरानेवाले कैमिकल से बने गुलाल, चमड़ी जलानेवाले रंग, आंख फोड़नेवाले पेंट, इनसे बनी है आज की होली.



साहित्य में होली हर काल में रही है. सूरदास, रहीम, रसखान, मीरा, कबीर, बिहारी हर कहीं होली है. होली का एक और साहित्य है हास्य व्यंग्य का. बनारस, इलाहाबाद और लखनऊ की साहित्य परंपरा इससे अछूती नहीं है. इन हास्य गोष्ठियों की जगह अब गाली-गलौजवाले सम्मेलनों ने ले ली है. जहां सत्ता प्रतिष्ठान पर तीखी टिप्पणी होती है. हालांकि ये सम्मेलन अश्लीलता की सीमा लांघते हैं, लेकिन चोट कुरीतियों पर करते हैं.

होली सिर्फ उद्दृंखलता का उत्सव नहीं है. वह व्यक्ति और समाज को साधने की भी शिक्षा देती है. यह सामाजिक विषमताओं को दूर करने का त्योहार है. बच्चन कहते हैं, ‘भाव, विचार, तरंग अलग है, ढाल अलग है, ढंग अलग, आजादी है, जिसको चाहो आज उसे वर लो. होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो.’ फागुन में बूढ़े बाबा भी देवर लगते थे. वक्त बदला है! आज देवर भी बिना उम्र के बूढ़ा हो शराफत का उपदेश देता है. अब न भीतर रंग है न बाहर. होली मेरे बालकों का कौतुक है या मयखाने का खुमार. कहां गया वह हुलास, वह आनंद और वह जोगिरा सा रा रा रा! कहां बिला गई है फागुन की मस्ती!

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