है। राजनीतिक दल जातिगत सरकारी नौकरियों में आरक्षण का फायदा उठा चुके हैं।
इसमें अब सुप्रीम कोर्ट के कायदे-कानून आड़े आ रहे हैं। अन्यथा दलों ने अपने सुविधा के हिसाब से इसका प्रतिशत बढ़ाने से भी नहीं चूकते। इसके बावजूद भी राजनीतिक दलों ने यह दिखाने के लिए कि वे आम लोगों के कितने बड़े हितैषी हैं, पचास प्रतिशत के इस दायरे को बढ़ाने के भरसक प्रयास किए हैं, हालांकि यह जानते हुए भी कि उनका यह प्रयास अदालत में मुंह के बल गिरेगा। इसका उदाहरण मराठा आरक्षण है। आरक्षण का कोटा पूरा होने के बावजूद मराठा आरक्षण का प्रस्ताव महाराष्ट्र सरकार ने पारित कर दिया, किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने इसे गैरकानूनी करार देकर सरकार के राजनीतिक स्वार्थों पर पानी फेर दिया।
आश्चर्य की बात यह है कि राजनीतिक दल आरक्षण का दायरा बढ़ाने की वकालत करतें हैं किन्तु मौजूदा आरक्षण से क्रीमी लेयर को बाहर करने की बात नहीं करते, ताकि दूसरे वंचित आरक्षित वर्ग को आगे आने का मौका मिल सके। आरक्षण का कई पीढ़ियों से फायदा उठा रही यह क्रीमी लेयर जमात आरक्षण के दायरे में मौजूद दूसरे लोगों का हक डकार रही है। अनुसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण मिलने के बावजूद हालात यह है कि समग्र रूप से इनके आर्थिक और सामाजिक हालात में खास सुधार नहीं हुआ।
इनको मिले आरक्षण का फायदा कुछ प्रतिशत लोगों तक सीमित रह गया। यह क्रीमी लेयर दूसरे के हितों पर कुंडली मार कर बैठी है। दमित और वंचित वर्गों के आरक्षण के जरिए उत्थान का दंभ भरने वाले राजनीतिक दलों की असलियत यह है कि क्रीमी लेयर की छंटनी करना तो दूर उस पर चर्चा करने तक से भागते नजर आते हैं। यह निश्चित है कि हर तरफ आरक्षण देना रोजगार और सामाजिक उत्थान का विकल्प नहीं है, इसके लिए समग्र्र राष्ट्रीय नीति की जरूरत है।
Add Comment