दूसरे विश्व युद्ध के दौरान दुनिया की बस एक उम्मीद थी, ये खत्म कब होगा। 75 साल बाद वैसा ही मंजर फिर दिखा है जब सभी कोरोना वायरस के खात्मे की आस लगाए बैठे हैं। दुनिया भर में डेढ़ करोड़ से ज्यादा संक्रमण के मामले हैं और छह लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। इसमें से 12 लाख से ज्यादा केस तो भारत में ही हैं।
जाहिर है, सबकी निगाहें कोरोना वायरस की वैक्सीन पर हैं जिसे भारत समेत कई देश बनाने की कोशिश में हैं। दर्जनों क्लीनिकल ट्रायल हो रहे हैं और कुछ देशों में ये ट्रायल दूसरे फेज में पहुंच भी चुके हैं। उम्मीद है कि साल के अंत तक एक वैक्सीन तैयार हो सकती है। लेकिन अगर ये वैक्सीन बन भी गई तो दुनिया के हर कोने तक पहुंच कैसे सकेगी?
वैक्सीन नेशनलिज्म
कोरोना वायरस के कहर ने अमीर-गरीब, कमजोर-ताकतवर, सभी के मन में डर और संशय पैदा कर रखा है। ‘वैक्सीन नेशनलिस्म’ ने डर और आशंकाओं को बढ़ावा दिया है। कोविड-19 के महामारी का रूप लेते ही कई देशों ने वैक्सीन पर रिसर्च तेज कर दी थी।
अमरीका दो बार साफ इशारा कर चुका है कि अपने देश में किसी भी वैक्सीन बनने की सूरत में पहले उसकी प्राथमिकता अमरीकी नागरिकों को तक पहुंचाने की होगी। रूस जैसे देश भी अप्रत्यक्ष रूप से इस तरह के इशारे कर चुके हैं। अपने देशों में प्राथमिकता देने की नीति को ‘वैक्सीन नेशनलिस्म’ या ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ बताया जा रहा है। ऐसी मिसालें पहली भी दिखी हैं।
H1N1 संकट के दौरान 2009 में ऑस्ट्रेलिया ने बायोटेक उत्पादन करने वाली कंपनी ‘सीएसएल’ से कहा था कि स्थानीय पूर्ति होने के बाद ही वैक्सीन अमरीका भेजी जा सकेगी। इन हालातों में चिंता न सिर्फ गरीब और पिछड़े देशों में है, बल्कि उनमें भी जहाँ कई वैक्सीन ट्रायल के ट्रायल किए जा रहे हैं।
आईसीएमआर के पूर्व महानिदेशक प्रोफेसर एनके गांगुली को लगता है कि भारत को भी पूरी तरह निश्चिन्त नहीं बैठना चाहिए। उन्होंने कहा, “हो सकता है हमारे यहाँ उस क्वालिटी की वैक्सीन न बनें। इंडिया में अभी होलसेल वैक्सीन के ट्रायल चल रहे हैं, हमें बहुत चीजों का पता नहीं है। अगर ये वैक्सीन अच्छी नहीं निकलती, तो हमें किसी और की वैक्सीन का इस्तेमाल करना पड़ेगा। हमें अभी से तैयारी करनी पड़ेगी क्योंकि जहाँ वैक्सीन होगी, हो सकता है वो दूसरे देशों के लिए उपलब्ध न हो।”
विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक डॉक्टर टेड्रस एडहॉनम गेब्रियेसुस ने भी हाल में इसी मामले से जुड़ी चिंताओं को व्यक्त किया था। उन्होंने कहा था, “जन मानस के लिए वैक्सीन बनाना एक बेहतरीन काम है और अच्छी बात है ये है कि कई प्रयास जारी हैं। हालांकि चंद देश हैं जो उल्टी दिशा में चल रहे हैं और ये चिंता की बात है। अगर वैक्सीन पर आपसी सहमति नहीं बनी तब वो देश जिनके पास पैसे नही हैं या शक्ति नहीं है, उनका बहुत नुकसान होगा”।
सवाल ये भी है कि वैक्सीन ईजाद करनेवाले का उस पर कितना नियंत्रण होगा? ग्लोबल इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट (वैश्विक बौद्धिक संपदा अधिकार) के तहत वैक्सीन बनानेवाले को 14 साल तक डिजाइन और 20 साल तक पेटेंट का अधिकार मिलता है। लेकिन इस अप्रत्याशित महामारी के प्रकोप को देखते हुए सरकारें “अनिवार्य लाइसेंसिंग” का जरिया भी अपना रही हैं ताकि कोई थर्ड-पार्टी इसे बना सके। यानी कोरोना महामारी से जूझ रहे किसी देश की सरकार कुछ दवा कंपनियों को इसकी निर्माण की इजाजत दे सकती हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूरोपियन यूनियन ऐसे विकल्प भी ढूँढ रहे हैं जिससे पेटेंट लाइसेंसिंग का एक बैंक बना कर वैक्सीन सभी देशों को दे दी जाए। हालांकि अभी इस तरह के किसी मसौदे पर सहमति बनती नहीं दिखी है लेकिन ये शायद सबसे बड़ी चुनौती बन सकती है।
दक्षिण-पूर्व एशिया में डब्लूएचओ की क्षेत्रीय निदेशक डॉक्टर पूनम खेत्रपाल सिंह को लगता है कि ‘अगर एक असरदार कोविड वैक्सीन बनी तो 2021 के खत्म होते-होते लोगों तक उसकी दो अरब डोज पहुंचाने का इरादा है। इसमें से 50% उन देशों में पहुंचाई जाएंगी जो लो और मिडिल इनकम श्रेणी में आते हैं। पर इसके लिए देशों को अपनी व्यवस्था बेहतर बनानी होगी जिससे दवा मिलते ही उसे लोगों तक पहुंचाने के कारगर तरीके पहले से तैयार रहें।’
वैक्सीन के इंतजार के बीच ये साफ होता जा रहा है कि महज वैक्सीन बन जाने से लोगों की मुश्किलें रातों-रात खत्म नहीं होंगी। आम लोगों तक इसे पहुंचाने की एक लंबी और जटिल प्रक्रिया होती है। तो एक तरफ जहां दवा कंपनियों और सरकारों में एक कारगर कोविड वैक्सीन बनाने की होड़ सी मची है, दूसरी तरफ बहस इस बात पर भी छिड़ी है कि बनने के बाद ये पहले किसे मिलेगी और किसे नहीं। जाहिर है, मरीजों के बाद पहला हक हेल्थवर्कर्स, बच्चों-बुजुर्गों और गर्भवती महिलाओं का रहेगा।
विकासशील देशों में जेनरिक दवाओं और टीकाकरण पर लंबे समय से काम कर रहीं लीना मेंघानी, एमएसएफ ऐक्सेस अभियान की दक्षिण एशिया प्रमुख हैं और उन्हें लगता है कि “किस देश की स्वास्थ्य प्रणाली कितनी मजबूत या कमजोर है इसका असर टीकाकरण पर दिखेगा।”
लीना मेंघानी ने बताया, “मिसाल के लिए निमोनिया की वैक्सीन ले लीजिए जो आज भी भारत में सिर्फ 20 फीसदी बच्चों तक पहुंच पाती है, मुख्य वजह है दाम। मतलब करीब 10 डॉलर प्रति बच्चे के हिसाब से भारत सरकार इस वैक्सीन को गावी यानी ग्लोबल वैक्सीन एलायंस से खरीदती है । इसलिए ठोस स्वास्थ्य प्रणाली के अलावा किसी भावी टीके के दाम का भी बड़ा रोल रहेगा”।
कोविड-19 महामारी के शुरू होते ही दुनिया के लगभग सभी देशों में इससे निबटने को लेकर सहमति दिखी थी लेकिन जैसे-जैसे वैक्सीन के रिसर्च की प्रक्रिया आगे बढ़ी मतभेद भी बढ़े हैं। सरकारों के बीच मतभेद तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निपटाने होंगे, लेकिन जानकारों को लगता है कि सवा अरब से ज्यादा आबादी वाले भारत जैसे देश में एक और मुश्किल है।
प्रोफेसर एनके गांगुली कहते हैं, “अगर आज मेरे पास वैक्सीन हो तो मैं बहुत डर जाऊंगा और मेरी रातों की नींद उड़ जाएगी। भारत में वैक्सीन को सभी तक पहुंचाने में हमेशा समय लगा है। हमारे यहां संघीय प्रणाली है और सभी राज्यों की जरूरत होगी। अब जिन राज्यों और लोगों को पहले वैक्सीन नहीं मिलेगी उनके बीच सामाजिक मनमुटाव भी हो सकता है”। भारत सरकार के नीति आयोग में सदस्य(स्वास्थ्य) वीके पॉल ने भी इस हफ्ते वैक्सीन पर बात करते हुआ कहा कि, “इस बात पर चर्चा शुरू हो गई है कि जरूरतमंदों को कोविड वैक्सीन कैसे मुहैया कराई जाएगी।”
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