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मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने प्रदूषण की समस्या का सुझाया निदान…बताया… कृषि को मनरेगा से जोड़ों और बनाओं पराली से जैविक खाद…छत्तीसगढ़ ने कर दी है इसकी शुरूआत…

रायपुर। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने देश की राजधानी नई दिल्ली में पराली जलाने से हर वर्ष उत्पन्न होने वाली भीषण प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए कृषि को मनरेगा से जोडऩे और पराली को जैविक खाद में बदलने का सुझाव दिया है। मुख्यमंत्री श्री बघेल ने इस समस्या के निदान के उपाय सुझाए।

मुख्यमंत्री ने कहा कि सितम्बर-अक्टूबर माह में हर साल पंजाब एवं हरियाणा राज्य को मिला दे तो लगभग 35 मिलियन टन पराली या पैरा जलाया जाता है। इसके दो कारण हैं- किसान द्वारा धान की फसल के तुरंत बाद गेंहू की फसल लेना और पैरा डिस्पोजल का जलाने से सस्ता का सिस्टम मौजूद नहीं होना।

जबकि किसान जान रहे हैं कि इससे धरती की उर्वरकता नष्ट होती है। भयानक प्रदूषण उत्पन्न होता है। एक सर्वे के अनुसार सितम्बर-अक्टूबर माह में जलाए गए पराली से दिल्ली में 42 प्रतिशत से 46 प्रतिशत तक वायु प्रदूषण में वृद्धि होती है और इससे दमा, कफ और अन्य बीमारियों का प्रतिशत 50 प्रतिशत तक बढ़ जाता है।



ये निश्चय ही खतरनाक स्थिति है। एक ओर किसान अपना महत्वपूर्ण जैव घटक जोकि जैविक खाद बनाने में उपयोग होना चाहिए, को आर्थिक संकट की वजह से जला कर नष्ट कर रहे हैं, वहीं दिल्ली की जनता स्वास्थ्य संकट झेल रही है।

यदि मनरेगा के नियोजन से इस पराली और ठूंठ को जैविक खाद में बदलने के लिए केन्द्र सरकार निर्देश दे तो न केवल भारी मात्रा में खाद बनेगा, बल्कि पराली जलाया नहीं जाएगा, जिससे प्रदूषण नहीं होगा। 100 किलोग्राम पराली से लगभग 60 किलोग्राम शुद्ध जैविक खाद बन सकता है।

यानी 35 मिलियन टन पराली से लगभग 21 मिलियन टन यानी 2 करोड़ 10 लाख टन जैविक खाद बन सकता है। जिससे उर्वरकता खोती पंजाब की न केवल भूमि का उन्नयन होगा, बल्कि वहां भयानक रूप से बढ़ते कैंसर का प्रकोप भी कम होगा और दिल्ली का स्वास्थ्य भी ठीक होगा।
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मुख्यमंत्री ने कहा कि हमने छत्तीसगढ़ में 2000 गांवों में गौठान बनाएं हैं, जहां जन-भागीदारी से परालीदान (पैरादान) कार्यक्रम जारी है। सरकार उसे गौठान तक लाने की व्यवस्था कर रही है और ग्रामीण युवा उद्यमी उसे खाद में बदल रहे हैं।

ये पराली समस्या का एक सम्पूर्ण हल है। कृषि एक आवर्तनशील प्रक्रिया है, उसके हर उत्पाद वापिस खेतों में जाएंगे, किसी न किसी स्वरूप में, तभी खेती बचेगी, मनुष्य स्वस्थ होगा। इसमें मनरेगा और गौठान परंपरा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हंै।

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